(1) ---- श्रावण मास में शिव आराधना - पवित्र श्रावण मास का अपना एक अलग ही महत्व है। बादलों से रिमझिम वर्षा के बीच मूकबद्ध एवं क्रमबद्ध वृक्षों की उपस्थिति चारों ओर हरियाली एवं सुंदर पुष्पों से सजा हुआ पृथ्वी का आंगन उस आंगन में स्थित शिवलिंग एवं शिवलिंग की समक्ष यह प्रार्थना। कदा निलिंप निर्झरी निकुंज कोटरे वसन। विमुक्त दुरमति सदा शिरस्थ मंजरी वहन।। बिलोल लोल लोचनों ललाम भाल लग्नका। शिवेति मंत्रमुच्चरन कदा सुखी भवाम अहं।। अर्थात, ।। हे सुंदर ललाट वाले भगवान चंद्रशेखर मैं दत्तचित् होकर अपने कुविचारों को त्याग कर श्री गंगा जी के तटवर्ती निकुंज के भीतर रहता हुआअपने सिर पर हाथ जोड़कर डबडबाई हुई बिहल आंखों से शिव मंत्र का उच्चारण करता हुआ कब सुखी हो जाऊंगा।। ऐसी प्रार्थना निश्चित ही समस्त संसार के लिए कल्याणकारी होगी। श्रावण मास में इस पवित्र श्लोक के साथ भगवान शिव की कृपा भी हम सब पर बरसती रहे। हमारा प्रयास कुछ ऐसा रहे की श्रावण मास के अधिष्ठाता भगवान शंकर की कृपा श्रावण में वर्षा की बूंदौं के साथ हम पर बरस पड़े। जिनकी कृपा से तारे ,सितारे नक्षत्र ,वार ,गृह एवं राशियां सभी अनुकूल हो जाती हैं। श्रीमती पूजाअग्निहोत्री दुबे (2)-- *जन्मपत्रिका में शनि ग्रह* *की स्थिति एवं प्रभाव* - जब भी जन्म कुंडली की बात होती है तब जन मानस में सर्वाधिक चिंता शनि ग्रह के कारण होती है। शनि न्याय के देवता हैं अतः जिनकी पत्रिका में शनि शुभ स्थिति में होते हैं उन्हें बहुत अच्छा फल प्रदान करते हैं तथा जिनकी पत्रिका में शनि अशुभ स्थिति में होते हैं उन्हें दुख और कष्ट की स्थिति निर्मित करते हैं सदैव शुभ कर्म करते रहने से शनि देव अत्यंत प्रसन्न रहते हैं किंतु कभी-कभी जीवन में शुभ कर्म करने पर भी जातक अथवा जातिका को दुख भोगना पड़ता है इसका कारण शनि का जन्मपत्रिका में अशुभ स्थिति में निर्मित होना होता है। पूर्व कर्मों के दुष्प्रभाव के कारण जन्म पत्रिका में शनि अशुभ स्थिति में निर्मित हो जाते है और अपनी दशा अंतर्दशा में अशुभ फल प्रदान करते है। निरंतर शुभ कर्म करते रहने से शनि का दुष्प्रभाव कम हो जाता है। ज्योतिष में शनि देव सर्वाधिक धीमी गति से चलते हैं इस प्रकार वह एक राशि में ढाई वर्ष तक रहते हैं।जन्म कुंडली में शनि मकर एवं कुंभ राशि के स्वामी होते है। तथा तुला राशि में उच्च की स्थिति में एवं मेष राशि में नीच की स्थिति में होते है। कुंडली के द्वादश भाव में उच्च के शनि विशिष्ट प्रभाव उत्पन्न करते हैं इसी प्रकार नीच के शनि विशेष रूप से दुष्प्रभाव उत्पन्न करते हैं। मकर एवं कुंभ राशि में शनि की स्वच्छेत्री स्थिति निर्मित होती है इसके प्रभाव से जन्म कुंडली के द्वादश भाव में अनुकूलता प्राप्त होती हैं। जन्म कुंडली के अष्टम भाव में शनि की उपस्थिति अथवा शनि की दृष्टि दीर्घायु प्रदान करती हैं इसी प्रकार से जन्म कुंडली के सप्तम भाव में शनि की उपस्थिति अथवा शनि की दृष्टि विवाह में विलंब उत्पन्न करती हैं इसी प्रकार से जन्म कुंडली के द्वादश भावों में अलग-अलग फल प्राप्त होता है। शनि ग्रह की शुभता के लिए मजदूर अथवा साफ सफाई आदि करने वाले कर्मचारीयों का विशेष ध्यान रखना चाहिए जरूरतमंद लोगों के लिए अथवा योग्य ब्राह्मण के लिए काले कंबल का दान ,उड़द का दान , काली तिल का दान , सरसों के तेल का दान, शुभ फल प्रदान करता है तथा पीपल के वृक्ष में जल अर्पित करने से वा पीपल के वृक्ष के समीप दीपक लगाने से भी शनि की प्रसन्नता प्राप्त होती हैं शनि सूर्य देव के पुत्र हैं शनि की माता छाया देवी हैं शनि यमराज के बड़े भाई हैं उन्हें ब्रह्म मंडल में भ्रत्य का पद प्राप्त है। वे कर्म के देवता हैं अतः कुंडली के दशम भाव में सदैव कारक होते हैं कुंडली का दशम भाव कर्मेश होता है अतः काल पुरुष की पत्रिका के अनुसार शनि दशम भाव में कारक होते हैं क्योंकि वे न्याय के भी के भी देवता हैं अतः निरंतर शुभ कर्म करते रहने से शनि देव की प्रसन्नता और उनकी कृपा प्राप्त होती है नासिक जिले में सिंगनापुर नामक स्थान पर शनि देव की प्रतिमा के दर्शन करने से भी शनि के अशुभ प्रभाव में निश्चित रूप से कमी होती है तथा निम्नलिखित श्लोक के नियमित पाठ से भी शनि देव प्रसन्न होते हैं। ।।नीलांजनं समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजं।। ।। छाया मार्तंड संभूतं तं नमामि शनिश्चरं।। ।।श्रीमती पूजा अग्निहोत्री दुबे।। ।।मोबाइल नंबर--7697234867।। (( (3)---*पितृ* *पक्ष* *में* *श्राद्ध* *कर्म* *का* *महत्व*------ धर्मशास्त्रों में यह बताया गया है कि पितृपक्ष के दौरान किए गए श्राद्ध कर्म से पितरों को संतोष प्राप्त होता है और वे अपने वंशजों को आशीर्वाद प्रदान करते हैं। यह आशीर्वाद परिवार की समृद्धि, स्वास्थ्य, और सुख-शांति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। मनुस्मृति में कहां गया है--।।श्राद्धेन पितरः तृप्ताः, तृप्ताः तु पितरः सुतान्।। अर्थात श्राद्ध से पितृ तृप्त होते हैं और तृप्त पितृ अपने वंशजों को आशीर्वाद प्रदान करते हैं पितृपक्ष में श्राद्ध करने का अत्यंत महत्व है धार्मिक मान्यता है की मृत्यु लोक से पूर्वज पृथ्वी पर आते हैं इसलिए इस दौरान उनका श्राद्ध करने से उनका आशीर्वाद मिलता है तथा पितृ दोष से मुक्ति मिलती है घर में सुख शांति एवं सुख समृद्धि व संपन्नता बढ़ती है परिवार व्यवसाय एवं आजीविका में उन्नति होती है एवं कुल में वीर निरोगी शतायु और श्रेष्ठ कर्म करने वाली संतति उत्पन्न होती है एवं पूर्वजों की कृपा से जीवन में आने वाली बाधाएं समाप्त होती है। जिस तिथि को पूर्वजों का देहांत होता है उस तिथि को पितृपक्ष में उनका श्राद्ध किया जाता है शास्त्रों के अनुसार पितृपक्ष में पितरों की निमित्त जो अपनी शक्ति सामर्थ के अनुरूप शास्त्रोक्त विधि से श्रद्धा पूर्वक दान करता है और श्राद्ध कर्म करता है उसके सकल मनोरथ सिद्ध होते हैं जिस किसी को अपने पूर्वजों की तिथि का ज्ञान नहीं होता वह सर्व पितृ मोक्ष अमावस्या के दिन किसी ब्राह्मण को भोजन एवं दान कर सकते हैं जो सर्वाधिक कल्याणकारी होता है पितृ पक्ष को सोलह श्राद्ध महालय पक्ष अथवा अपार पक्ष के नाम से भी जाना जाता है पितृपक्ष में श्राद्ध कर्म करने से पितृ दोष से मुक्ति मिलती है। श्रीमती पूजा अग्निहोत्री दुबे । (4) -- *कृष्णं वंदे जगतगुरुं* ----- भगवान कृष्ण का जन्म भाद्रपद मास में कृष्ण पक्ष की अष्टमी को माना जाता है। जिसे हम सब जन्माष्टमी के रूप में मनाते हैं। भगवान कृष्ण को हम सब, चित चोर, माखन चोर, नंद नंदन, गोपाल,माधव, मोहन, घनश्याम, मुरलीधर, श्री कृष्णा, राधिका बल्लभ, देवकीनंदन, यशोदा नंदन, वासुदेव, केशव , बिहारी पुरुषोत्तम, द्वारकाधीश, योगेश्वर आदि नाम से जानते हैं। वे लीलाधर है उनकी लीलाओं को सूरदास,मीराबाई, रसखान, आदि कवियों ने वर्णित किया है। भगवान श्री कृष्ण को जानना अत्यंत ही कठिन है भगवती राधा जी अर्थात श्री किशोरी जी की विशेष कृपा से ही उन को जाना जा सकता है। श्रीमद् भागवत, महाभारत, श्रीभगवत गीता आदि के नियमित अध्ययन से श्री राधा कृष्ण जी की कृपा अवश्य प्राप्त होती है। क्योंकि इन ग्रंथो में भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का विशेष रूप से वर्णन किया गया है। भगवती राधा भगवान कृष्ण की आत्मा है अर्थात राधा ही कृष्ण एवम कृष्ण ही राधा है। कहा जाता है।।।।राधा तुम बड़भागनि, कौन तपस्या कीन।। तीन लोक तारण तरण, सो तुम्हारे अधीन।।।। अर्थात हे किशोरी आपने ऐसा कौन सा तप किया है जिससे तीनों लोकों का तरन तारन करने वाले श्री कृष्ण सदैव आपके अधीन रहते हैं। भगवान कृष्ण की 8 पट रानियां माता रूकमणि, जामवंती, सत्यभामा, कालिंदी, मित्रवृंदा, नाग्नजीती, भद्रा एवं लक्ष्मणा है। उनकी 16 000 रनिया भी है जिन्हें वेद की ऋचाएं कहा जाता है । भगवान कृष्ण पृथ्वी पर अति विशिष्ट कार्यों को संपादित करने के लिए अवतरित हुए थे। एवं उन्होंने श्री किशोरी जी की अत्यंत कृपा से सारे कार्यों को संपादित किया। श्रीमद् भागवत के प्रथम श्लोक में कहा गया है।। सच्चिदानंद रुपाय विश्व उत्पत्तियादि हेतवे ।। तापत्राय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नमः।। अर्थात सत्य चित् और आनंद को प्रदान करने वाले भगवान श्री कृष्ण जो जगत की उत्पत्ति,स्थिति एवं प्रलय के हेतु है तथा दैहिक दैविक एवं भौतिक तीनों प्रकार के तापों का नाश करने वाले हैं उन्हें हम सब नमस्कार करते हैं ।। श्रीमद् भगवत गीता में श्री कृष्ण के द्वारा अर्जुन को दिया गया ज्ञान समूचे ब्रह्मांड की प्रत्येक जीवात्मा के लिए अति कल्याणकारी है। इसीलिए कहा गया है। वासुदेव सुतम देवम, कंसचाणूर मर्दनम।। देवकी परमानंदम कृष्णम वंदे जगतगुरुंत।। Shrimati Pooja Agnihotri Dubey.                           










 





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